गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे है.

रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे है.

रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे है.
दक्षिणी राज्यों में सैंकड़ों किसानों के खुदकुशी करने के पीछे रासायनिक दवाओं की खलनायकी उजागर हो चुकी है. इस खेती से उपजा अनाज जहर हो रहा है. रासायनिक खाद डालने से एक दो साल तो खूब अच्छी फसल मिलती है फिर जमीन बंजर होती जाती है. बेशकीमती मिट्टी की ऊपरी परत (टाप सोईल) का एक इंच तैयार होने में 500 साल लगते हैं. जबकि खेती की आधुनिक प्रक्रिया के चलते एक इंच टाप सोईल मात्र 16 वर्ष में नष्ट हो रही है.
रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी सूखी और बेजान हो जाती है. यही भूमि के क्षरण का मुख्य कारण है. वहीं गोबर से बनी कंपोस्ट या प्राकृतिक खाद से उपचारित भूमि की नमी की अवशोषण क्षमता पचास फीसदी बढ़ जाती है. नतीजा मिट्टी ताकतवर, गहरी और नम रहती है. इससे उसका क्षरण भी रुकता है.
स्थापित तथ्य है कि कृत्रिम उर्वरक यानी रासायनिक खादें मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक खनिज लवणों का भारी मात्रा में शोषण करते हैं. इसके कारण जमीन में जरूरी खनिज लवणों की कमी आ जाती है. जैसे कि नाईट्रोजन के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम का क्षरण होता है. इसकी कमी पूरी करने के लिए जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसिड और केरोटिन की कमी आ जाती है. इसी तरह सुपर फास्फेट के कारण मिट्टी में तांबा और जस्ता चुक जाता है. जस्ते की कमी के कारण शरीर की वृद्धि और लैंगिक विकास में कमी, घावों के भरने में अड़चन आदि रोग लग जाते हैं.
नाईट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों से संचित भूमि में उगाए गेहूं-मक्का में प्रोटीन की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत कम होती है. रासायनिक खाद के कारण भूमिगत जल के दूषित होने की गंभीर समस्या भी खड़ी हो रही है. अभी तक ऐसी कोई तकनीक भी विकसित नहीं हुई जिससे भूजल को रासायनिक जहर से मुक्त किया जा सके. जबकि आसन्न जल संकट का एकमात्र निदान भूमिगत जल ही है.
न्यूजीलैंड एक विकसित देश है. यहां आबादी के बड़े हिस्से का जीवनयापन पशुपालन से होता है. इस देश में पीटर प्राक्टर पिछले 30 वर्षो से जैविक खेती के विकास में लगे हैं. पीटर का कहना है कि यदि अब खेतों को रसायनों से मुक्त नहीं किया गया तो मनुष्य का समूचा शरीर ही जहरीला हो जाएगा. वे बताते हैं कि उनके देश में कृत्रिम उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन बीमार हो गई है. साथ ही इन रसायनों के प्रयोग के बाद शेष बचा कचरा धरती के लिए कई अन्य पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहा है.
पीटर के मुताबिक जैविक खेती में गाय के सींग की भूमिका बेहद चमत्कारी होती है. वे कहते हैं कि सितंबर महीने में गहरे गड्ढे में गाय का गोबर भरें. साथ में गाय के सींग के एक टुकड़े को दबा दें. फरवरी या मार्च में इस सींग और कंपोस्ट को निकाल लें. खाद तो अपनी जगह काम करेगी ही, यह सींग का टुकड़ा भी जिस खेत में गाड़ देंगे वहां बेहतरीन व रोग मुक्त फसल होगी.
प्राक्टर ने यह प्रयोग कर पाया कि गाय के सींग से तैयार मिट्टी सामान्य मिट्टी से 15 गुना अधिक उर्वरा व सक्रिय थी. पीटर बताते हैं कि सींग के साथ तैयार कंपोस्ट को पानी में घोलकर खेतों में छिड़क ने से पैदावार अधिक पौष्टिक होती है, जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और कीटनाशकों के उपयोग की जरूरत नहीं पड़ती है. न्यूजीलैंड सरीखे आधुनिक देश के इस कृषि वैझानिक ने पाया कि अच्छी फसल के लिए गृह-नक्षत्रों की चाल का भी खयाल करना चाहिए. वे मानते हैं कि ऐसा करने पर फसलों में कभी रोग नहीं लगते हैं.
कुछ साल पहले हालैंड की एक कंपनी ने भारत को गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी तो खासा बवाल मचा था. लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इस बेशकीमती कार्बनिक पदार्थ की हमारे देश में कुल उपलब्धता आंकने के आज तक कोई प्रयास नहीं हुए. अनुमान है कि देश में कोई 13 करोड़ मवेशी हैं, जिनसे हर साल 120 करोड़ टन गोबर मिलता है. उसमें से आधा उपलों के रूप में जल जाता है. यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसद भी नहीं है.
1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है. लेकिन इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के तरीके 'गोबर गैस प्लांट' की दुर्गति यथावत है. राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत निर्धारित लक्ष्य के 10 फीसद प्लांट भी नहीं लगाए गए हैं जबकि ऊर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि देश में गोबर के जरिए 2000 मेगावाट ऊर्जा पैदा हो सकती है.
गोबर के ऊपर खाना बनाने में बहुत समय लगता है. यदि इसके बजाय गोबर का इस्तेमाल खेतों में किया जाए तो अच्छा होगा. इससे एक तो महंगी रासायनिक खादों व दवाओं का खर्चा कम होगा. साथ ही जमीन की ताकत भी बनी रहेगी. पैदा फसल अच्छी सेहत में मददगार होगी, यह भी बड़ा फायदा होगा.
हालांकि यदि गांव के कई लोग मिल कर गोबर गैस प्लांट लगा लें तो इसका उपयोग रसोई में भी अच्छी तरह होगा. गैस प्लांट से निकला कचरा खाद का काम करेगा. कुल मिलाकर यदि हम गोबर में छिपे गुणों का इस्तेमाल सीख लें तो फसली-इंसानी सेहत तो सुधरेगी ही, सरकार भी भारी भरकम उर्वरक सब्सिडी से निजात पा सकती है.
रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे है. दक्षिणी राज्यों में सैंकड़ों किसानों के खुदकुशी करने के पीछे रासायनिक दवाओं की खलनायकी उजागर हो चुकी है. इस खेती से उपजा अनाज जहर हो रहा है. रासायनिक खाद डालने से एक दो साल तो खूब अच्छी फसल मिलती है फिर जमीन बंजर होती जाती है. बेशकीमती मिट्टी की ऊपरी परत (टाप सोईल) का एक इंच तैयार होने में 500 साल लगते हैं. जबकि खेती की आधुनिक प्रक्रिया के चलते एक इंच टाप सोईल मात्र 16 वर्ष में नष्ट हो रही है. रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी सूखी और बेजान हो जाती है. यही भूमि के क्षरण का मुख्य कारण है. वहीं गोबर से बनी कंपोस्ट या प्राकृतिक खाद से उपचारित भूमि की नमी की अवशोषण क्षमता पचास फीसदी बढ़ जाती है. नतीजा मिट्टी ताकतवर, गहरी और नम रहती है. इससे उसका क्षरण भी रुकता है. स्थापित तथ्य है कि कृत्रिम उर्वरक यानी रासायनिक खादें मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक खनिज लवणों का भारी मात्रा में शोषण करते हैं. इसके कारण जमीन में जरूरी खनिज लवणों की कमी आ जाती है. जैसे कि नाईट्रोजन के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम का क्षरण होता है. इसकी कमी पूरी करने के लिए जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसिड और केरोटिन की कमी आ जाती है. इसी तरह सुपर फास्फेट के कारण मिट्टी में तांबा और जस्ता चुक जाता है. जस्ते की कमी के कारण शरीर की वृद्धि और लैंगिक विकास में कमी, घावों के भरने में अड़चन आदि रोग लग जाते हैं. नाईट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों से संचित भूमि में उगाए गेहूं-मक्का में प्रोटीन की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत कम होती है. रासायनिक खाद के कारण भूमिगत जल के दूषित होने की गंभीर समस्या भी खड़ी हो रही है. अभी तक ऐसी कोई तकनीक भी विकसित नहीं हुई जिससे भूजल को रासायनिक जहर से मुक्त किया जा सके. जबकि आसन्न जल संकट का एकमात्र निदान भूमिगत जल ही है. न्यूजीलैंड एक विकसित देश है. यहां आबादी के बड़े हिस्से का जीवनयापन पशुपालन से होता है. इस देश में पीटर प्राक्टर पिछले 30 वर्षो से जैविक खेती के विकास में लगे हैं. पीटर का कहना है कि यदि अब खेतों को रसायनों से मुक्त नहीं किया गया तो मनुष्य का समूचा शरीर ही जहरीला हो जाएगा. वे बताते हैं कि उनके देश में कृत्रिम उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन बीमार हो गई है. साथ ही इन रसायनों के प्रयोग के बाद शेष बचा कचरा धरती के लिए कई अन्य पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहा है. पीटर के मुताबिक जैविक खेती में गाय के सींग की भूमिका बेहद चमत्कारी होती है. वे कहते हैं कि सितंबर महीने में गहरे गड्ढे में गाय का गोबर भरें. साथ में गाय के सींग के एक टुकड़े को दबा दें. फरवरी या मार्च में इस सींग और कंपोस्ट को निकाल लें. खाद तो अपनी जगह काम करेगी ही, यह सींग का टुकड़ा भी जिस खेत में गाड़ देंगे वहां बेहतरीन व रोग मुक्त फसल होगी. प्राक्टर ने यह प्रयोग कर पाया कि गाय के सींग से तैयार मिट्टी सामान्य मिट्टी से 15 गुना अधिक उर्वरा व सक्रिय थी. पीटर बताते हैं कि सींग के साथ तैयार कंपोस्ट को पानी में घोलकर खेतों में छिड़क ने से पैदावार अधिक पौष्टिक होती है, जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और कीटनाशकों के उपयोग की जरूरत नहीं पड़ती है. न्यूजीलैंड सरीखे आधुनिक देश के इस कृषि वैझानिक ने पाया कि अच्छी फसल के लिए गृह-नक्षत्रों की चाल का भी खयाल करना चाहिए. वे मानते हैं कि ऐसा करने पर फसलों में कभी रोग नहीं लगते हैं. कुछ साल पहले हालैंड की एक कंपनी ने भारत को गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी तो खासा बवाल मचा था. लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इस बेशकीमती कार्बनिक पदार्थ की हमारे देश में कुल उपलब्धता आंकने के आज तक कोई प्रयास नहीं हुए. अनुमान है कि देश में कोई 13 करोड़ मवेशी हैं, जिनसे हर साल 120 करोड़ टन गोबर मिलता है. उसमें से आधा उपलों के रूप में जल जाता है. यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसद भी नहीं है. 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है. लेकिन इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के तरीके 'गोबर गैस प्लांट' की दुर्गति यथावत है. राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत निर्धारित लक्ष्य के 10 फीसद प्लांट भी नहीं लगाए गए हैं जबकि ऊर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि देश में गोबर के जरिए 2000 मेगावाट ऊर्जा पैदा हो सकती है. गोबर के ऊपर खाना बनाने में बहुत समय लगता है. यदि इसके बजाय गोबर का इस्तेमाल खेतों में किया जाए तो अच्छा होगा. इससे एक तो महंगी रासायनिक खादों व दवाओं का खर्चा कम होगा. साथ ही जमीन की ताकत भी बनी रहेगी. पैदा फसल अच्छी सेहत में मददगार होगी, यह भी बड़ा फायदा होगा. हालांकि यदि गांव के कई लोग मिल कर गोबर गैस प्लांट लगा लें तो इसका उपयोग रसोई में भी अच्छी तरह होगा. गैस प्लांट से निकला कचरा खाद का काम करेगा. कुल मिलाकर यदि हम गोबर में छिपे गुणों का इस्तेमाल सीख लें तो फसली-इंसानी सेहत तो सुधरेगी ही, सरकार भी भारी भरकम उर्वरक सब्सिडी से निजात पा सकती है.

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