बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

भोजन सम्बंधित महत्त्पूर्ण बातें

भोजन सम्बंधित महत्त्पूर्ण बातें

जीवन में ग्रहण करने योग्य महत्वपूर्ण
बात भोजन बैठकर
ही करना चाहिए । चलते, फिरते
कदापि भोजन
नहीं करना चाहिए । (महाभारत, अनु०
१०४ / ६०)
जो स्त्री के भोजन किये हुए पात्र में भोजन
करता है,
स्त्री का झूठा खाता है
तथा स्त्री के साथ एक बर्तन
में भोजन करता है, वह मानों मदिरा (शराब) का पान
करता है। (महाभारत, आश्र० ९२)
वट, पीपल, आक (मदार,आकड़ा)
कुम्भी (तरबूज),
तिन्दुक, कचनार और करंज के पतों में
कभी भोजन
नहीं करना चाहिये । (बृहतपराशरस्मृति ७ /
१२३)
जो गृहस्थ शुद्ध कांसे के बर्तन में
अकेला ही भोजन
करता है, उसकी आयु, बुद्धि, यश और
बल- इन
चारों की वृद्धि होती है परन्तुर
विवार के दिन
कास्यपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए ।
(ब्रह्मोक्तयाज्ञव्ल्क्यसंहिता २ / १६१;
व्याघ्रपादस्मृति ३४९-३५०)
बायें हाथ से भोजन करना अथवा दूध
पीना मदिरापान के सामान त्याज्य है |
(अत्रीस्मृति ५ / ६-७)
जब तक कलह (झगड़ा), चक्की,
औखली और मूसल
का शब्द सुनायी दे, तबतक भोजन
नहीं करना चाहिये ।
(धर्मसिन्धु 3, पू०
आहिक०)
परोसे हुए अन्न
की निन्दा नहीं करनी चाहिये,
वह
स्वादिष्ट हो या न हो, प्रेम से भोजन कर
लेना चाहिये । जिस अन्न
की निन्दा की जाती है,
उसे राक्षस खाते है । (तैत्रियोपनिषद ३ / ७)
अन्न की नित्य
स्तुति करनी चाहिए और अन्न
की निन्दा किये बिना भोजन करना चाहिए,
उसका दर्शन करके हर्षित एवं प्रसन्न होना चाहिए ।
सत्कारपूर्वक खाये गए अन्न से बल तथा तेज
की वृद्धि होती है
और निन्दा करके खाया हुआ अन्न उन दोनों (बल और
वीर्य) को नष्ट करता है | (कूर्मपुराण, ऊ०
१२ / ६१ ;
मनुस्मृति २ / ५५)
ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनता और
द्वेष के समय
मनुष्य जिस भोजन को ग्रहण करता है, वह उसे
अच्छी तरह
नहीं पचता अर्थात अजीर्ण
हो जाता है ।
इसलिए मनुष्य को चाहिये की वह भोजन के
समय अपने
में काम-क्रोधादि वृतियों को न आने दे, अपितु शान्त
और प्रसन्नचित से भोजन करे । (भावप्रकाश,
दिनचर्या० ५ / २२८)
जो आधे खाये हुए मोधक और फल को पुन: खाता है
तथा प्रत्यक्ष नमक को खाता है, वह
गोमांसभोजी कहाँ जाता है । (नारदपुराण,
पूर्व० २७ /
७९)
भोजन करके जिस अन्न को छोड़ दे, उसे फिर ग्रहण न
करे अर्थात छोड़े हुए भोजन को फिर
कभी नहीं खाना चाहिये ।
(भविष्यपुराण,ब्राह० ३ /
४०)
भोजन करते समय मौन रहना चाहिए । ( (महाभारत,
शान्ति० १९३ / ६)

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